उत्तर प्रदेश संस्कृति, परंपराओं और मान्यताओं से समृद्ध राज्य है। यहां हर कोने में इतिहास के नायाब निशान दिखाई देते हैं। प्राचीन किला हो या मंदिर या फिर महल। इनके गौरवशाली अतीत की एक झलक अवश्य देखने को मिलती है। इन्हीं सांस्कृतिक धरोहरों में एक है, ‘विरासत वृक्ष’। यूपी में पुरातन वृक्षों की श्रृंखला है। उन पेड़ों से जुड़ी कहानियां, दिलचस्प किस्से रोमांचित कर जाते हैं।
जब भी हम धरोहरों या ऐतिहासिक विरासतों की बात करते हैं तो हमारी चर्चा प्राचीन इमारतों, मंदिरों, प्रतिमाओं या स्थापत्य तक ही सीमित हो जाती हैं। मगर, उत्तर प्रदेश विरासतों के इस दौर को एक कदम और ऊपर ले गया है। प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में मानव जीवन के संदर्भ में पेड़ों की महत्ता को समझते हुए हरे-भरे जीवित वृक्षों को भी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत का दर्जा दिया गया है। ये जीवित विरासत सड़कों के किनारे, पार्को में, जंगली पेड़ों के बीच, धार्मिक स्थलों पर या निजी संपत्ति में भी पाए जा। देश भर में न जाने कितने ही विरासत वृक्ष मौजूद हैं, सिर्फ उत्तर प्रदेश में इनकी संख्या 948 है। यूपी सरकार ने इन प्राचीन वृक्षों को ‘विरासत’ घोषित किया है।
वाराणसी में सबसे अधिक विरासत वृक्ष
विरासत वृक्ष, आम तौर पर प्रकृति का अद्वितीय उपहार माना जाता है। उत्तर प्रदेश में ऐसे अपूरणीय पेड़ों की तादात बहुत अधिक है। विरासत वृक्ष पदनाम के लिए प्रमुख मानदंड आयु, दुर्लभता और आकार के साथ-साथ उनका सौंदर्य, वनस्पति, पारिस्थितिक और ऐतिहासिक मूल्य है। प्रदेश के बुलंदशहर जिले में ऐसा ही एक विरासत वृक्ष है, जो 500 साल पुराना है। उत्तर प्रदेश में ऐतिहासिक, पौराणिकता और धार्मिक महत्व वाले सैकड़ों पुरातन वृक्ष हैं। इनमें सबसे ज्यादा धर्मनगरी वाराणसी में है। काशी में तक़रीबन 98 पुराने वृक्ष (विरासत वृक्ष) चिह्नित किए गए हैं। संगमनगरी प्रयागराज में 53, जबकि हरदोई जिले में 33 विरासत वृक्ष हैं। झांसी में 30 तो लखनऊ में 25 विरासत वृक्ष हैं।
विलुप्त प्रजातियों के वृक्षों को संवार रही सरकार
विरासत वृक्षों में सबसे अधिक संख्या बरगद और पीपल के पेड़ों की है। कुल 948 वृक्षों में पीपल के 422, बरगद के 363 और पाकड़ के 57 सहित अन्य प्रजातियों के पेड़ हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने 100 वर्ष से अधिक आयु वाले 28 प्रजाति के जीवित वृक्षों को ‘विरासत’ का दर्जा दिया है। राज्य सरकार विलुप्त हो रही प्रजातियों के इन वृक्षों को संवार रही है। यूपी सरकार ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और पौराणिक महत्व वाले पेड़ों, महत्वपूर्ण घटनाओं और अतिविशिष्ट व्यक्तियों से जुड़े वृक्षों को संरक्षित कर आम लोगों को इनके प्रति जागरूक करने का प्रयास कर रही है।
विरासत वृक्षों के संरक्षण जरिए इको टूरिज्म को बढ़ावा देने का प्रयास है। पर्यटन विभाग की कोशिश है कि, विरासत वृक्ष जहां भी स्थित हैं वहां पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए समय-समय पर मेलों आदि का आयोजन होगा। इससे लोगों में उन पुरातन पेड़ों के प्रति आकर्षण बढ़े।
बुलंदशहर में दुनिया का सबसे पुराना बरगद का पेड़
बरगद के एक से एक पुराने पेड़ आपने देखे होंगे, लेकिन यूपी के बुलंदशहर के नरोरा में एक विरासत वृक्ष की पहचान हुई है। यह पेड़ काफी पुराना है। इसे देखने दूर-दराज से पर्यटक आते हैं। आपको आश्चर्य होगा कि बरगद का यह वृक्ष 500 साल पुराना है। हिन्दू धर्म में बरगद के पेड़ का बहुत महत्व है। इसे भगवान का दर्जा प्राप्त है। यही वजह है कि लोग इसकी पूजा भी करते हैं। बरगद को ‘कल्पवृक्ष’ भी कहा जाता है। बुलंदशहर के इस पेड़ की खोज गंगा रणसार में एक फ्लोरिस्टिक सर्वे के दौरान हुई। रेडियोकार्बन डेटिंग पद्धति से इसके पांच दशक पुराना होने का पता चला। यह वृक्ष दुनिया का सबसे पुराना बरगद का पेड़ है। पेड़ का ऊपरी हिस्सा 4069 स्क्वायर मीटर में फैला है। वैज्ञानिकों ने रिसर्च में पाया कि इस पेड़ की कुल 4 जड़े हैं, जो इसके तने को सहारा दिए हैं।
स्वतंत्रता आंदोलन के गवाह ये वृक्ष
राजधानी लखनऊ में 25 विरासत वृक्षों की पहचान हुई है। ये वो पेड़ है जो सदियों से जीते आ रहे हैं। इन पेड़ों ने आजादी की लड़ाई भी देखी। लखनऊ में राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (एनबीआरआई), काकाेरी, मलिहाबाद, कुकरैल और प्राणी उद्यान (जू) के कई ऐसे पेड़ हैं, जो स्वतंत्रता आंदोलन के गवाह रहे हैं।
इन प्रजातियों के पेड़ विरासत की श्रेणी में
विरासत वृक्ष की श्रेणी में जिन प्रजातियों को शामिल किया गया है, वो हैं- अरु,अर्जुन, आम ,इमली, कैम, करील, कुसुम ,खिरनी ,शमी, गम्हार, गूलर, चितवन, चिलबिल ,जामुन, नीम, ऐडनसोनिया, पाकड़, पीपल, पीलू ,बरगद ,महुआ ,महोगनी, मैसूर बरगद शीशम, साल , सेमल, हल्दु व तुमाल शामिल हैं। इनमें बरगद के 363 और पीपल प्रजाति के 422 वृक्ष शामिल हैं।
‘नेचर, कल्चर और एडवेंचर’
उत्तर प्रदेश की धरती बेहद संपन्न और उर्वर है। राज्य में पर्यटन की असीम संभावनाएं हैं। पर्यटन विभाग को विरासत वृक्षों के साथ क्षेत्रों के विकास के दौरान प्रकृति को केंद्र में रख ईको टूरिज्म की संभावनाएं नजर आई। ‘नेचर, कल्चर और एडवेंचर’ के संगम के ये स्थल देश-दुनिया के पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बनेंगे।
कैसे चुने जाते हैं विरासत वृक्ष?
किसी भी पुराने पेड़ को विरासत वृक्ष घोषित करने के लिए कई मापदंड तय हैं। ऐसे भौतिक और आध्यात्मिक मानदंड जो उन वृक्षों को अति विशिष्ट बनाते हैं। भौतिक गुणों में वृक्ष की आयु, रूप या आकार हो सकते हैं। इसके अलावा, भौतिक कारणों में पेड़ एक दुलर्भ प्रजाति का हो या उस पेड़ प्रजाति के लुप्त होने का खतरा हो। वहीं, गैर भौतिक मानदंड उस वृक्ष की स्थिति या सौंदर्य से जुड़े पहलुओं से संबंधित होते हैं, जैसे- पेड़ किसी व्यक्ति, घटना या स्थान के साथ ऐतिहासिक या सांस्कृतिक जुड़ाव रखता हो। इनमें मिथक या लोककथाओं से जुड़े पेड़ भी हो सकते हैं। कुल मिलाकर कहें तो ‘विरासत पेड़ उसके रूप, आकार, सुंदरता, आयु, रंग, दुर्लभता, अनुवांशिकता या अन्य विशिष्ट विशेषताओं के कारण उल्लेखनीय नमूना है।’
किसी वृक्ष को ‘विरासत वृक्ष’ मानने के लिए सौंदर्य, वनस्पति, पारिस्थितिकी, बागवानी, सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को भी ध्यान में रखा जाता है। किसी विशेष कालखंड, व्यक्ति, स्थान, घटना या नमूनों को भी ‘हेरिटेज ट्री’ माना जा सकता है।
‘हेरिटेज ट्री’ लिस्ट में ये भी
विरासत वृक्षों की लिस्ट में प्रयागराज का अक्षय वट, लखनऊ के दशहरी आम का पेड़ और वाराणसी के लंगड़ा आम को भी शामिल किया गया है। उन्नाव के जानकी कुंड में लगाया गया त्रेता युगीन अक्षय वट और नैमिषारण्य, सीतापुर स्थित वट वृक्ष भी विरासत वृक्षों की सूची में शामिल है। इसी प्रकार, वाराणसी का बोधि वृक्ष को भी विरासत का दर्जा हासिल है। फतेहपुर का ’52 इमली का पेड़’ भी विरासत की श्रेणी में आ गया है। कहते हैं 1857 की क्रांति के दौरान इस पेड़ पर 52 लोगों फांसी दी गई थी। जौनपुर में मछली शहर रोड स्थित पीपल के पेड़ को ब्रह्म बाबा के नाम से जानते हैं। ऐसे ही, प्रतापगढ़ में लगा करील के पेड़ की मान्यता है कि वनवास के समय प्रभु श्रीराम, माता सीता और लक्ष्मण जब चित्रकूट जा रहे थे, तो इस स्थान पर रुके थे। मान्यता के अनुसार, यहां मन्नत पूरी होने पर भक्त घंटी बांधते हैं।
उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग लगातार इको टूरिज्म को बढ़ावा दे रहा है। विरासत वृक्ष के माध्यम से ‘नेचर, कल्चर और एडवेंचर’ को एक सूत्र में पिरोने का काम जारी है। यह प्रयास लोगों को उनकी विरासत, प्रकृति और पर्यावरण के साथ संस्कृति से जोड़ता है।