गम्भीरशान्तं विमलं विशुद्धं अमृतोपमं धर्ममिदं विबुद्ध्य।
यस्मै कथं कथयितुं न शक्यं मौनं वनं गन्तुमिदं वरं मे॥
In English “Having realized this Dharma that is profound, peaceful, stainless, pure, and similar to nectar (immortal), Yet unable to explain it to anyone who might understand, I prefer to remain silent and retire to the forest.”
This verse was spoken by Buddha Shakyamuni immediately after he achieved enlightenment. It is a statement that shows his hesitancy to share the Dharma, as he attained that the profound, peaceful, unelaborated, luminous, and uncompounded nature of the truth he realized would be challenging for sentient beings to grasp. However, following a request from Brahma, the Buddha chose to share the Dharma, understanding that there were various types of sentient beings with different levels of understanding, Thus, he decided to turn the wheel of Dharma.
Consequently, the initial verse conveys the Buddha’s discouragement regarding the difficulty of comprehending such a profound truth and acknowledges that sentient beings are typically too dull to grasp it. In reality, the teacher gradually turned the wheel of Dharma, adapting to the varying capacities and dispositions of sentient beings. There are two main reasons for the Buddha’s first turning of the wheel of Dharma at Sarnath, in the presence of the five ascetics. First, the influence of past aspirations: during the time of Buddha Kashyapa, six individuals, including the brahmin Uttara and five monks, aspired to attain Buddhahood. Later, in the era of Buddha Shakyamuni, Prince Siddhartha and the five ascetics were born and became connected to the Buddha and his followers.
As well, at that moment, the Buddha realized that only five ascetics could grasp the significance of the teachings he provided. He looked for the location of the five ascetics and discovered them in the region of Varanasi.
Second, it was established to repay the kindness shown by the five noble companions who assisted the Buddha during his times of difficulty. Throughout his struggles, these five noble companions devotedly served him for several years. However, when the Buddha began to experience hardships while having the food, the five noble companions lost their faith in him and departed. Yet, out of immense compassion, the Buddha realized that it was time to guide the five noble companions and traveled to Sarnath.
This choice was also influenced by Sarnath’s status as a renowned holy site in India and the strong tradition that past enlightened ones turned the wheel of Dharma there. The initial turning of the wheel of Dharma occurred at this location. The Buddha first conferred full ordination upon the five ascetics. Subsequently, he turned the wheel of the Dharma regarding the Four Noble Truths and established the five ascetics in the state of arhatship. This marked the beginning of the dissemination of the Buddha’s teachings in the world. The primary references for this are the sutras and the Vinaya.
For example, the Vinaya-ksudraka states: Then the Buddha went to Benares and to the Mrigadava (Sarnath). There he turned the wheel of the Dharma of the Four Noble Truths for the five ascetics.
Ratnakut Sutra states: I will turn the wheel of the Dharma of the Four Noble Truths at the very place where Buddha Kashyapa once taught.
Ratnamek Sutra states: The five ascetics served him during his time of hardship and in order to repay their kindness, he taught them the Dharma first.
May all sentient beings be happy!
बुद्ध ने अपना पहला उपदेश सारनाथ में ही क्यों दिया?
गम्भीरशान्तं विमलं विशुद्धं अमृतोपमं धर्ममिदं विबुद्ध्य।
यस्मै कथं कथयितुं न शक्यं मौनं वनं गन्तुमिदं वरं मे॥
‘गंभीर, शांतिपूर्ण, पवित्र, शुद्ध और अमृत (अमर) के समान इस धर्म को महसूस करने के बाद भी इसे किसी को समझने में असमर्थता है, तो मैं चुप रहना और जंगल में चले जाना पसंद करता हूं।’
यह श्लोक गौतम बुद्ध (शाक्यमुनि) ने ज्ञान प्राप्ति के ठीक बाद कहा था। यह बौद्ध धर्म को साझा करने में उनकी झिझक को दर्शाता है। क्योंकि, शाक्यमुनि बुद्ध ने सत्य की गहन, शांतिपूर्ण, अप्रकाशित, चमकदार और असंबद्ध प्रकृति को करीब से महसूस किया था। उन्हें पता था कि, संवेदनशील प्राणियों के लिए इसे समझना चुनौतीपूर्ण होगा। हालांकि, ब्रह्मा के अनुरोध के बाद तथागत बुद्ध ने धर्म को साझा करने का फैसला लिया। यह समझते हुए कि विभिन्न प्रकार के संवेदनशील प्राणी, जिनकी समझ के विभिन्न स्तर हैं। इस प्रकार, उन्होंने धर्म का पहिया घुमाने का फैसला किया।
महात्मा बुद्ध द्वारा कहे गए प्रारंभिक श्लोक गहन सत्य को समझने की कठिनाई और निराशा को व्यक्त करती है। साथ ही, स्वीकार करते हैं कि संवेदनशील प्राणी आमतौर पर इसे समझने में सुस्त होते हैं। वास्तव में, बुद्ध ने संवेदनशील प्राणियों की विभिन्न क्षमताओं और स्वभावों को अपनाते हुए धीरे-धीरे धर्म का पहिया घुमाया। वाराणसी में पांच तपस्वियों की उपस्थिति में बुद्ध के प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन के दो मुख्य कारण हैं।–
पहला, बुद्ध कश्यप के समय में एक ब्राह्मण और उसके पांच शिष्यों सहित कुल छह लोगों ने बुद्धत्व प्राप्ति की आकांक्षा रखी थी। उनका विश्वास बुद्ध के उपदेशों में था। हालांकि, बुद्धत्व की प्राप्ति के बिना ही उनका देहावसान हो गया। फिर, बुद्ध शाक्यमुनि के युग में राजकुमार सिद्धार्थ (पिछले जन्म में ब्राह्मण) और पांच तपस्वियों (शिष्यों) के रूप में जन्म लेकर बुद्ध और उनके अनुयायियों के रूप में उनका मिलन हुआ। उस क्षण बुद्ध को एहसास हुआ कि केवल पांच तपस्वी ही उनके द्वारा प्रदान की गई शिक्षाओं के महत्व को समझ सकते हैं। बुद्ध ने दिव्य दृष्टि से उन पांचों तपस्वियों के निवास स्थान की तलाश की। उन्हें वाराणसी क्षेत्र के चौखंडी नमक स्थल में मिलाया। महात्मा बुद्ध स्वयं बोधगया से चौखंडी आकर उन पांच तपस्वियों से मिले और ऋषिपतन (इसिपतन या मृगदाव) में पहला उपदेश दिया।
दूसरा, महात्मा बुद्ध से जुड़ी एक कहानी के अनुसार, तथागत बुद्ध के मन में कई सवाल उठ रहे थे। उन्होंने प्रश्नों के उत्तर ढूंढने शुरू किए। मगर, समुचित ध्यान लगा पाने के बाद भी उन्हें वो जवाब नहीं मिले, जिनकी उन्हें तलाश थी। उन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलने पर महात्मा बुद्ध ने कुछ साथियों के साथ कठोर तपस्या शुरू की। भूख से व्याकुल तथागत मृत्यु के निकट पहुंच गए। मरणासन्न स्थिति में पहुंच चुके बुद्ध ने एक गांव में खीर ग्रहण किया, जिससे नाराज होकर उनके सहयोगी तथागत को छोड़कर चले गए। इसके पश्चात भगवान बुद्ध ने छः वर्ष कठोर तपस्या करने के बाद एक पीपल के पेड़ (जो अब बोधिवृक्ष के नाम से जाना जाता है) के नीचे प्रतिज्ञा करके बैठ गए कि वह सत्य जाने बिना नहीं उठेंगे। वह सारी रात बैठे रहे। माना जाता है, यही वह क्षण था जब सुबह के समय उन्हें पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। उन्हें निर्वन यानि बोधि प्राप्त हुई और वे 35 वर्ष की आयु में बुद्ध बन गए।
दरअसल, महात्मा बुद्ध द्वारा भोजन किए जाने से उनके पांचों साथियों ने उन पर अपना विश्वास खो दिया और छोड़कर चले गए। मगर, तथागत को ये एहसास था कि कठिनाई और संघर्ष के दौरान इन पांचों साथियों ने उनका किस प्रकार साथ दिया था। उन साथियों द्वारा दिखाई गई दयालुता का आभार जताने के लिए बुद्ध करुणा भाव के साथ मार्गदर्शन करने आगे बढ़े और सारनाथ की यात्रा की।
भारत प्राचीनकाल से पवित्र स्थलों की धरती रही है। बुद्ध के सारनाथ आगमन ने उस धार्मिक परंपरा को आगे बढ़ाया। तथागत बुद्ध ने अपने अनुयायियों के साथ वहां धर्म का पहिया घुमाया। धर्म चक्र का प्रारम्भिक प्रवर्तन इसी स्थान पर हुआ था। बुद्ध ने सबसे पहले पांच तपस्वियों को पूर्ण दीक्षा प्रदान की। इसके बाद, उन्होंने चार आर्य सत्यों के संबंध में धर्म का पहिया घुमाया और पांच तपस्वियों को अर्हत पद पर स्थापित किया, जिन्होंने दुनियाभर में बुद्ध की शिक्षा का प्रसार किया।
अब मन में सवाल उठना लाजमी है कि, सारनाथ बौद्ध परंपरा से संबद्ध उपासकों के लिए इतना महत्व क्यों रखता है? तो आपको बता दें, कि तथागत बुद्ध से पहले और बाद में जब तक बौद्ध धर्म का प्रसार होता रहेगा उनके उपदेशकों को सारनाथ से ही अपनी ‘बोधि यात्रा’ शुरू करनी होगी। इसलिए भगवान बुद्ध ने सारनाथ में ही अपना पहला उपदेश दिया था।
विनयक्षुद्रक के अनुसार, भगवान बुद्ध मृगदाव गए। वहां उन्होंने पांच तपस्वियों के लिए चार आर्य सत्यों के धर्म का चक्र घुमाया। रत्नकूटसूत्र के मुताबिक, मैं चार आर्य सत्यों के धर्म का चक्र उसी स्थान पर घुमाऊंगा जहां बुद्ध कश्यप ने एक बार शिक्षा दी थी। रत्नमेघसूत्र में कहा गया है, कि पांच तपस्वियों ने कठिनाई के समय में उनकी (तथागत) सेवा की और उनका ऋण चुकाने के लिए उन्होंने पहले धर्म की शिक्षा दी।
बौद्ध धर्म का इतिहास सदियों पुराना है। समय के साथ बौद्ध धर्म का काफी तेजी से प्रसार हुआ। वर्तमान समय में दुनिया के कई देशों में अपनी शिक्षाओं द्वारा अपने अनुयायियों की संख्या में वृद्धि कर ली है। भगवान बुद्ध इस धर्म के प्रमुख प्रर्वतक हुए। वैसे तो भारत में कई स्थान ऐसे हैं जो बौद्ध धर्म के तीर्थ बन चुके हैं, पर प्रमुख तीर्थ स्थल के रूप में सारनाथ सबसे प्रतिष्ठित स्थान है। सारनाथ में अशोक का चतुर्भुज सिंह स्तम्भ, भगवान बुद्ध का मंदिर, धमेखस्तूप, चौखण्डी स्तूप, सारनाथ संग्रहालय, मूलगन्धकुटी आदि दर्शनीय स्थल हैं। प्रति वर्ष सारनाथ में बड़ी संख्या में बौद्ध श्रद्धालु पहुंचते हैं।